Last modified on 1 दिसम्बर 2010, at 17:29

म्हारो मन । / मदन गोपाल लढ़ा

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:29, 1 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावा…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


थूं ओझा !
कीलै है फगत जाड़
का कर सकै है
म्हारै मन रो ई
कीं जाबतो ?

म्हनैं अधा राख्यो है
बैरी मनड़ै
ओपरी छिंया दांई।

दुनियांदारी बाबत
म्हारी ऊंडी समझ नै
एक छिण में
खूंटी टांग देवै
ओ बाळणजोगो
अर म्हैं चेताचूक हुयोड़ो
उखण्यां फिरूं
आखै मुलक री पीड़ नै।