राधे! कुछ तो मुँह से कहती!
प्रिये! मिलन में भी नयनों से जलधारा ही बहती!
'लिए विषम शर-पीड़ा तन में
मृगी काँपती ज्यों क्षण-क्षण में
कब तक यों दुःख मन ही मन में
और रहेगी सहती !
'हमने संग संग सागर तट पर
कभी रचे जो बालू के घर
कैसे खा लहरों की ठोकर
उनकी भीत न ढहती!
'कह-सुन कर कुछ तो ब्रजवासी
कर लेते हैं दूर उदासी
क्यों अब भी अनबुझी चिता सी
तू जलती ही रहती!'
राधे! कुछ तो मुँह से कहती!
प्रिये! मिलन में भी नयनों से जलधारा ही बहती!