अक्सर लौट आता हूँ पहाड़ / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
पहाड़ों का सूनापन खलता है अक्सर;
चीड़, बाँज, बुरांस,
देवदार की आवाज गूँजती है कानों में;
मानो पुकार रहे हैं, बुला रहे हैं
स्पर्श करती सनसनाती ठंडी हवा जैसे,
उन्हें झकझोर रही हो,
कह रही हो
पूछो तो इन पहाड़ के बाशिंदो से कि
" अब के साल
कोई नया परिवार तो नहीं छोड़ेगा पहाड़? "
ये सारे वृक्ष;
आत्मिक अनुभूति के संवाहक हैं,
घास की कोमल कलियाँ;
स्नेहानुभूति की चेष्टाएँ हैं,
उन्हें स्पर्श करते ही वे कहने लगती हैं
मित्र; न्योली तो गाओ,
मैं झूमना चाहती हूँ,
पहाड़ के संगीत में खोना चाहती हूँ,
उसी प्रकार
कोई घुघुती;
इस साल कहीं प्यासी न रह जाये,
कागा;
कहीं इस बार मेहमान बुलाते-बुलाते रो न पड़े,
बादलों को बरसाने वाला वह मनमोहक पंछी;
कहीं स्वयं बादल की तरह बरस न पड़े!
कोई हाजिरी (गेंदा) की फुनगी न रहे उदास,
घिंघारू, हिसालू, काफल मुस्काने की जगह कहीं
कुम्हालाएँ न,
माँ कहती थी
" मत छोड़ना पहाड़,
यहाँ की नदियों, घाटियों, बुग्यालों,
उपत्यकाओं,
दूधिया उत्स धाराओं,
पुरातन मंदिरों और बुजुर्गों के आस पास,
सभी जगह;
इष्ट रहते हैं, देवता रहते हैं,
पुन: सर सहलाते, माँ कहती
यहाँ पूर्वजों के आशीष हैं,
उनके दबे कुचले अरमान हैं,
उनकी यादें, उनकी खुशबू हैं, "
माँ बैठा करती थी जिस जगह उस जगह को
अक्सर चूम लेता हूँ,
दो बिंदु; नयन कोरो से ढुल मुल गिरा लेता हूँ,
पिता की लाठी, माँ की छड़ी देखने,
स्पर्श करने,
आत्मिक अनुभूति करने,
अक्सर लौट जाता हूँ पहाड़...!
अक्सर लौट आता हूँ पहाड़...!