आँगन सूना / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

बिना तुम्हरे अब सारा घर
सूना लगता है।

तुमको तो मालूम नीम का
तरु था आँगन में,
उसकी हरियाली, शीतलता
थी ध्ज्ञर में, मन में।
पर आवासी सुंदरता ने
काट लिया उसको;
उसके बिना-भाड़ जैसा घर
भूना लगता है।1।

रहने को तो और लोग भी
कई साथ रहते;
कुशल-क्षेम लेते वे अक्सर
साथ बात करते।
लेकिन रहते साथ, बात करते
उनसे मुझ को
अब जाने क्यों रह-रह कर डर
दूना लगता है?।2।

खुले दिलों से बात न करने
का अब जग आदी;
उसे चाहिए नकली रेशम,
नहीं असल खादी।
मैं देहाती, मुझे न आती
कला छिपाने की
था लावण्य कभी, अब सभी
अलूना लगता है।3।

मुझे बुलाते लोग पार्टियों
में शामिल होने;
खिला-खिला कर ‘टेलीफोन’ का-
सा ‘डायल’ होने।
किंतु ‘रिवीसवर’ मेरा पहले
ही बतला देता-
ऐसे ऊँचे खान-पान में
चूना लगता है।4।

मैं न सशंकित रहा कभी
अपनी तलवारों से;
मैं न कलंकित हुआ कभी
अपने ही प्यारों से।
पर ‘मय’ ने जो आज बनाया
मेरा शीश महल
माया-जाल, काल-सा उसको
छूना लगता है।5।

14.4.85

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