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आदर्शों पर अगरबत्तियाँ / रामकुमार कृषक

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आदर्शों पर अगरबत्तियाँ
आओ जला चलें
बैठ फिर कहीं स्वयं पजलें !

जितनी सरधा
उतनी चुप्पी
इतना बहरापन
ऊँची मान माथ से देहरी
गहरा रही चुभन,

कंगूरों पर
स्वर्ण थोपकर
अपने पुण्य फलें !

मन की मर्ज़ी
हर ख़ुदगर्ज़ी
अन्धा अपनापन
सूरज से भी सदा रही है
आँखों की अनबन,

अंगारों को
फेंक फूस पर
आओ हाथ मलें !

26 दिसम्बर 1974