भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उन्हीं दिनों / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
तब उसकी आँखों में अटके रहते थे
बसन्त के शुरुआती कोंपल
सर्द मौसम की नमी अशेष होती थी
पीले हृदय के रोएँदार जंगलों में
रोहिणी की आखिरी बूँदें
झरकर चुपचाप
मौसम की अँधेरी सुरंगों में लौट जाती थीं
देहरी पर खड़ा होता था एक पेड़
पेड़ पर बैठती थी एक चिड़िया
वही
जो चली गयी थी एक दिन दबे पंख
लौटने की असम्भव प्रतीक्षा की कूक
आँगन के अकेले ताख पर छोड़कर
शायद उन्हीं दिनों पहली बार
शरमायी थी वह शरमाने की तरह
शायद उन्हीं दिनों
रोती रही थी वह
हफ्तों किवाड़ों की ओट में