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कजली / 23 / प्रेमघन
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नागरी भाषा व खरी हिन्दी
ग्रीषम हुआ दूर दुखदाई, प्यारी वर्षा है जो आई;
मानो देते हुए बधाई, मोरों ने कलकूक सुनाई॥
काली घटा घेरती आती, चित को चातक के ललचाती;
बिजलीका है पटा फिराती, क्या दिखलाती सुन्दरताई॥
छाई धरती पर हरियारी, निकलीं बीरबधूटी प्यारी;
खिल-खिल कर फूलों की क्यारी, उपवन की छबि अधिक बढ़ाई॥
नीर के प्रेमघन घन बरसाते, भरकर झील ताल उतराते;
दादुर भी रट लाते भाते, बहती बेग भरी परवाई॥