भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कल्प-विकल्प : एक / इंदुशेखर तत्पुरुष
Kavita Kosh से
मान भी लूं कि तुम
मेरी ही कल्पना हो
मैं, रहूंगा निश्चिंत
उलझन न होगी तनिक भी
यदि प्रमाणित हो जाए
तुम्हारा अनस्तित्व ही
जाने हो क्यों ?
तब तुम्हारी सर्जना
मेरे लिए-मेरे द्वारा-मेरी ही
सर्जना !
क्या रहने देगी मुझे
जस का तस ?
कि तुम्हें रच कर ही मैं
रच पाता हूं स्वयं को-
कृतकृत्य हूं मैं
तुम्हारे इस रूप से भी
तुम, जो निमित्त ही सही
मेरे रूपान्तरण के
वन्दनीय फिर भी रहोगे।