Last modified on 29 जून 2014, at 13:53

कवच / लाल चोंच वाले पंछी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

लाठी भांजना उनका खेल था
रूखे दिनों की शाम में लौटकर
आंच में पकते बर्तन
दुबक चुके थे आ नींद की गोद में
छत की टपकती बूंदों से
चुहचुहा आये थे ललाट के दाग
बगुलों की तिरछी कतार
पफंसती जा रही थी धुंध्ली होती
नदी के पास की झुग्गियों में
पशुओं के खुरों से उड़ते धूल-कण
कनपट्टियों में भेद रहे थे आकाश
तपी गर्मी में नाचती हवाएं
मुंह बजाती रहतीं
बांस के पत्तों से खेलते हुए
बिरहा अलापते हलवाहे
उदास हो जाते पपड़ी पड़े खेतों को देख
पुरवैया का झकोरा बहने से
पसीजने लगती गमछे में पसीने की गंध
चले जा रहे थे चरवाहों के झुंड
चिड़िया के नाम वाले गांव की राह में
सुनसान पड़ा था वह गांव
अंध्यिारे की कवच में हर वक्त लिपटा हुआ।