काननबाला / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
मुकुल-मुकुल में छलक उठी है मदनसुरा नवनीता,
लोल लवंगलता-परिमल से आकुल पुलक-पुनीता।
आज खुली कलियों की कवरी, दक्षिण पवन लजाया,
मधु-मकरन्द-अन्ध मधुपों ने छायालोक बसाया।
अगरु डुला, लहराया चंपक, कांप उठी शेफाली,
सजल-कमलिनी-दल-जालों में छायी सुरभि निराली।
मलय पवन के पुलक-पुंज-सी काननबाला प्यारी,
शीतल विद्युत-सी ज्वलंत सौन्दर्यमयी सुकुमारी।
विसुध पड़ी रूप-निशा में पहन स्वप्न की माला,
इस अनंत के आलिंगन में मेरी काननबाला।
जाग जगाने आया री! मधु परिमल-केतु उड़ाता,
जाग राजकन्या वन की री! विश्व-विमोहन-गाता।
इधर घूमता नये मेघ-सा मैं किशोर मतवाला,
उधर सो रही मलय-कुमारी मेरी काननबाला।
अब असह्य हो उठा वसंती आतप इस निर्जन में,
पागल-सा हो उठा आह! यह जोगी फिर अणु-अणु में।
एक अतृप्त लालसा नीली, नीली हुई गगन में,
कोक-कपोती-कोकिल-केकी व्याकुल हुए विजन में।
सरस मोह के कंप-स्पर्श से हुए सभी मतवाले,
हेमवती प्रियदर्शनि मेरी! जागो काननबाला!