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खोज / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
तुम्हारे उगे हुए चेहरे पर
सुबह का उजाला
हमें दिखा था हर बार
जिसमें बच्चे अपनी मांओं के साथ
खोज रहे होते थे सपने
हम भी खोज रहे थे कुछ-न-कुछ
दूर कहीं सीवान पर
बाढ़ में घिरा हुआ अपना घर
जिसमें बने थे
हमारे सपनों को सजाने के लिए ताखें
पुरुखों की बटलोही भी अब
खो गई है तुम्हारे साथ
खो चुका है सपनों से भरा हुआ घर
और खोती जा रही हैं तुम्हारी यादें
कहीं इन्हीं जंगलों में खो गये थे तुम
इन जंगलों में तुम्हें खोजना ही होगा।