(5)
लक्ष्मण-मूर्च्छा
रागकेदारा
राम-लषन उर लाय लये हैं |
भरे नीर राजीव-नयन सब अँग परिताप तए हैं ||
कहत ससोक बिलोकि बन्धु-मुख बचन प्रीति गुथए हैं |
सेवक-सखा भगति-भायप-गुन चाहत अब अथए हैं ||
निज कीरति-करतूति तात! तुम सुकृती सकल जए हैं |
मैं तुम्ह बिनु तनु राखि लोक अपने अपलोक लए हैं ||
मेरे पनकी लाज इहाँलौं हठि प्रिय प्रान दए हैं |
लागति साँगि बिभीषन ही पर, सीपर आपु भए हैं ||
सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि-गन, सुर सोच सुखाइ गए हैं |
तुलसी आइ पवनसुत-बिधि मानो फिरि निरमये नए हैं ||