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घर-घर आँगन-आँगन जागा / रामगोपाल 'रुद्र'

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घर-घर आँगन-आँगन जागा, तेरा घर अँधियार,
आली! तू भी संझा बार।

शशि शरमाए कुमुद-नयन में;
निशि शत-शत-दृग विस्मित मन में
यह कैसी लौ मृन्‍मय तन में!
इन दीपों के आगे जागे क्या नभ का शृंगार!

पर्व नहीं, यह गर्व धरा का;
तिमिर-शिखर पर ज्योति-पताका;
अति पर नति की जय का साका;
इन नेही नयनों के जोड़े क्यों न जुड़े संसार!

एक दिया तेरे भी कर में,
साँझ दिखा दे, सखि, घर-घर में;
निज लघुतमता में मत भरमे;
यह तेरा लघु नीराजन ही होगा रवि साकार!