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घर लौटते हुए / वेणु गोपाल

माफ़ी मांगती दीवारें बार-बार
फिर भी घर बनाती-बिगाड़तीं
मेरे आसपास। मैं
आकाश होने को ज़मीन हो जाता हूँ
और
गमलों की जगहें बदलता हुआ
इतना प्रसन्न-गुनगुनाता हूँ कि दीवारों पर
नया पलस्तर लग जाता है।

सड़क घर से ज़्यादा दूर नहीं है
फिर भी वह
अपने आप में
पूरी सड़क है-- चलती हुई, गुंजान।
और
घर है कि रुका हुआ, सुनसान।
मेरा
सारा का सारा शोर-शराबा
उस सुनसान में
सेंध लगाने में
नाकामियाब होता हुआ। हमेशा।
फिर भी बाज नहीं आता
अपनी हरकत से।

घर मेरे साथ हमेशा रहता है। मैं
चाहे जिस सड़क पर, चाहे जहाँ रहूँ।
कभी जेब से
फुदक कर बाहर आता हुआ तो कभी
पीठ पर से
काक्रोच की तरह गुज़रता हुआ
झटकारने-झटकारने तक
फोतों पर चींटी की तरह काट खाता हुआ।

एक
सनातन डेरा बना रखा है मेरे घर ने।
मेरे वजूद पर। और मैं
मार सैकड़ों सड़कों को रौंदता हुआ
घर को ही ढोया करता हूँ। दरअसल।
उससे दूर भागने की कोशिश में
दुनिया-जहान की सैर कराता हुआ उसे।

शाम जंगल में होती है तो भी माँ की
डाँट सुन लेता हूँ।
रात होती है तो पत्नी का बुलावा
हस्बे मामूल।
और
सबेरे-सबेरे पिताजी का देवी-स्तोत्र। और

जंगल घर हो गया है तो अब घर ही लौट रहा हूँ।
लौटने में कविता हो रही है।
पहुँच जाऊंगा तो पूरी हो जाएगी। और
दीवारों को माफ़ी मिल जाएगी आख़िरकार,
घर एक बारगी बन ही तो जएगा
या फिर बिगड़ जाएगा-- हमेशा के लिए।

रचनाकाल : 04 अक्तूबर 1975