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चान्दनी और बादल / जगदीश गुप्त
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चाँद का प्याला कहीं उलटा पड़ा होगा,
बादलों ने चान्दनी पी ली ।
स्याह होठों की गठी कोरें,
छलकते आलोक से तर हैं;
प्रेत-सी कारी डरारी देह,
है अभी तक अमृत से गीली ।
सुधा थी या सुरा ?
नस-नस में नशा भरपूर,
प्रेत-सी कारी डरारी देह चकनाचूर;
लड़खड़ाते-डगमगाते पैर
मुड़ी-ऐंठी सूँड़-सी बाँहें पड़ी ढीली ।
चाँद का प्याला कहीं उलटा पड़ा होगा,
बादलों ने चान्दनी पी ली ।