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जब ते हरि मधुपुरी सिधाये / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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जब ते हरि मधुपुरी सिधाये।
तब ते रहत अनमने दो‌ऊ तन-मन की सब सुधि बिसराये।
सूखी हृदय-‌अमी-रस-धारा, सूखे सकल अंग पथराये।
सूखे दृग थिर पलकहीन ह्वै चढ़े रहत मधुबन-चित लाये॥
भूषन-बसन-‌असन सब भूले, बाढ़ी जटा, केस अरुझाये।
यापी बिपुल बेदना अंतर सहमे रोम-रोम अकुलाये॥
कर दै चिबुक बिसूरति जसुमति सुरति करत नँद बदन फिराये।
देखि न सकत परस्पर दो‌ऊ उर की उर अति बिथा छिपाये॥
सूनी दृष्टि, सृष्टिस्न् सब सूनी, सून जो ब्रज ब्रजनिधि बिछुराये।
अतिहि अकिंचन भ‌ए रहत सब, स्याम-राम बिनु कछु न सुहाये॥