जीने की प्रत्याशा में / मुकेश निर्विकार
जी.पी.एफ., एल.आई.सी., एन.एस.सी. वगैरह-वगैरह
पॉलिसीज में
हर महीन के सीमित वेतन से
काट लिया जाता है किश्तों में
मेरे वर्तमान का एक बड़ा हिस्सा
भविष्य के किसी सज्जगबाग की खातिर
कटता रहेगा जीवन भर
मेरे वर्तमान का कुछ हिस्सा
और मैं भोग नहीं पाऊँगा
ताउम्र उसे।
इन तमाम कटौतियों के बाद
पाता हूँ मैं- एक अल्पवेतन।
अक्सर महसूस होता है मुझे
बेहद तंग विस्तार मेरे वर्तमान का
पड़ा रहता हूँ मैं जिसमें
सिकुड़ता हुआ
खींचे लगाम तमाम महत्वकांक्षाओं की
लगाये पाबन्दियाँ खरीददारियों पर
बाजार की ओर से मुँह मोड़े
सुख-चैन वर्तमान का
चढ़ जाता है
भविष्य की किसी सलीब पर
लटका दिया जाता है
मेरे मन का ईसा
कील-कील ठोंककर
बेरहमी से
मोड़ दी जाती है मेरी चादर
जबरन सिकोडकर
धर दिये जाते हैं मेरे पैर
उकड़ूँ बनाकर मुझे।
सोचता हूँ-
भविष्य का क्या ठिकाना
क्या यह सिर्फ भविष्य ही बना रहेगा
सदा-सर्वदा के लिए
पड़ा रहूँगा मैं सिकुड़ा हुआ
अपने वर्तमान की तंग चादर में
अनेक वर्जनाओं व कटौतियों के बीच
वर्तमान के दमघोंटू वातावरण में
सांस रोके
बस जीने की प्रत्याशा में..... ।