भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुनिया ऐसे ही चलती है / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

व्यर्थ दुखी हो पप्पू बेटा
दुनिया ऐसे ही चलती है।

परिवर्तन का प्रकृति-चक्र है
यही आज की दुनियादारी
दुखी हो रहे व्यर्थ समझकर
तुम इसको अपनी लाचारी
ये जो अपने हुए पराए
इनके भी
सुख-दुख पहचानो
इनके भी कुछ अपने हित हैं
इनकी मनोभावना जानो
धरो न आदर्शों की हँडिया
इसमें
दाल नहीं गलती है।

इसकी टोपी उसके सिर पर
चोले बदल-बदलकर धर लो
बाप किसी का कभी रहा हो
वक्त धके तो
अपना कर लो
जमा खर्च सारे ज़ुबान के
यही सियासत की पूँजी है
कौन सुनेगा यहाँ मजीरी
नक्कारों की ध्वनि गूँजी है
हाँक ले गया भैंस गबरुआ
दुखिया धनो
हाथ मलती है।

पसरे हाथ
धरो रेबड़ियाँ
बजता बड़ा झुनझुना दे दो
आँख तरेरे
धरो चुम्मियाँ
मुकुट बाँट कर लंका भेदो
क्या चरित्र की बातें करते?
देखो साफ झक्क चेहरों को
इनके पीछे खड़ी क़तारें
देखो उन अन्धे बहरों को
क्या बापू
क्या बाबा साहिब?
राजनीति
सबको छलती है।