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द्वितीय अंक / भाग 5 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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निपुणिका
इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ?
 
औशीनरी
पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है.
जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी?
आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी.
 
[कंचुकी का प्रवेश]

कंचुकी
जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने
और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने
जो सैनिक थे गए,आज वे नगर लौट आए हैं,
और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं.
 
"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,
झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है.
 लम्बे-लम्बे चीड ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,
एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए

दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं,
जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं.
शिखरों पर हिमराशी और नीचे झरनों का पानी,
बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी.
 
बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,
किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में.
प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,
एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है.
 
पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?
देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?
करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में,
जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में."

निपुणिका
सुन लिया सन्देश आर्ये ?

औशीनरी
हाँ, अनोखी साधना है,
अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है !
पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुञ्ज-वन में,
और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में .

कितना विलक्षण न्याय है !
कोई न पास उपाय है !
अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है.

दुःख-दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी ! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं.

तब भी मरुत अनुकूल हों,
मुझको मिलें, जो शूल हों,
प्रियतम जहां भी हों, बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों.

द्वितीय अंक समाप्त