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द्वितीय अंक / भाग 4 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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औशीनरी
कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है.
जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है.
 
मदनिका
उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,
नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की.
वश में आई हुई वास्तु से इसको तोष नहीं है,
जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है.
 
नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर,
नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर.
करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल न्र को भाता है,
चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है.
ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है,
जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है
 
क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर,
ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर;
जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो
और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो,
प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में,
पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में.
 
औशीनरी
गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,
जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के
पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?
जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी.
 
निपुणिका
इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने
दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?
 
महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं,
जिसका चित्त अप्सराएं कर सकती सहज हरण हैं?
कार्त्तिकेय -सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी,
रावी-सम तेजवंत, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी;
घनाद-सदृश संग्रही, व्योमवत मुक्त, जल्द-निभ त्यागी,
कुसुम -सदृश मधुमय, मनोज्ञ , कुसुमायुध से अनुरागी.
 
ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है?
 कौन वास्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?
 
औशीनरी
अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक न कर सकी हूँ ?
कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ ?
प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है.
न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है.
 
तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को,
सड़ा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को.
पर, वह मिलता नहीं, चमक, जाने क्यों खो गयी कहाँ पर !
जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गयी कहाँ पर !
 
सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है,
जिससे नारी के अंतर का मान-पद्म खिलता है.
वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से,
देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से.
 
वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है,
प्रौढा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है.
अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी,
जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठाती है नारी.
 
मदनिका
जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में,
आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में.
विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है,
दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है.
 
वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है,क्या हो काय-मिलन से ?
तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से.
पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है,
फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है.
 
पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से,
जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से.
असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है,
संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है.
 
संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल
सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल.
आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,
और विपद में रमणी के अंगों का गाढालिंगन .
 
जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की,
या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की.
और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है,
उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है
 
प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है,
वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है.
अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी,
बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी.
 
तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,
युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है.
जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,
उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं.
 
जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है,
उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है.
बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,
किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं.