द्वितीय अंक / भाग 3 / रामधारी सिंह "दिनकर"
निपुणिका
पर, कैसी है कृपा भाग्य की इस गणिका के ऊपर!
बरस रहा है महाराज का सारा प्रेम उमड़कर.
जिधर-जिधर उर्वशी घूमती, देव उधर चलते हैं
तनिक श्रांत यदि हुई व्यजन पल्लव-दल से झलते हैं.
निखिल देह को गाढ दृष्टि के पय से मज्जित करके
अंग-अंग किसलय, पराग, फूलॉ से सज्जित करके,
फिर तुरंत कहते “ये भी तो ठीक नहीं जंचते हैं ‘’
भाँति-भाँति के विविध प्रसाधन बार-बार रचते हैं
और उर्वशी पीकर सब आनन्द मौन रहती है
अर्धचेत पुलकातिरेक मॅ मन्द-मन्द बहती है
मदनिका इसमॅ क्या आश्चर्य?
प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है,
दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी नर को लगती है
कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की
जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की
पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को,
क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!
यही लग्न है वह जब नारी, जो चाहे, वह पा ले,
उडुऑ की मेखला, कौमुदी का दुकूल मंगवा ले.
रंगवा ले उंगलियाँ पदों की ऊषा के जावक से
सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से.
तपोनिष्ठ नर का संचित ताप और ज्ञान ज्ञानी का,
मानशील का मान, गर्व गर्वीले, अभिमानी का,
सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही प्रमदा के चरणों पर
कुछ भी बचा नहीं पाटा नारी से, उद्वेलित नर.
किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है !
उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष ह्रदय है,
उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में
रखा चाहती वह समेटकर सागर को बंधन में.
”’औशीनरी”’
किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है
तब तक नर का प्रेम शिथिल, प्रशमित होने लगता है.
पुरुष चूमता हमें, अर्ध-निद्रा में हमको पाकर,
पर, हो जाता विमिख प्रेम के जग में हमें जगाकर.
और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला,
पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला.
वही आंसुओं की माला अब मुझे पिरोनी होगी.
निपुणिका
इसी भाँती क्या महाराज भी होंगे नहीं वियोगी ?
आप सद्र्श सन्नारी को यदि राजा ताज सकते हैं,
आँख मूंद स्वर्वेश्या को कब तक वे भज सकते हैं ?