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द्वितीय अंक / भाग 2 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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निपुणिका
सिन्धु अचल रहता तो हम क्यॉ रोते राजमहल मॅ?
जलते क्यॉ इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल मॅ ?
महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,
बाँहॉ मॅ भर लिया दौड़ गोदी मॅ उसे उठाकर
समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,
पर्वत के पंखॉ मॅ सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी.

और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?
सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?
गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?
छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?
कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणॉ मॅ गमक उठी है?
नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?
किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर मॅ
मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणॉ के मादक सर मॅ?
सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?
डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है.
प्राणॉ की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह मॅ
नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?
दिवा-रात्रि उन्निद पलॉ मॅ तेरा ध्यान संजोकर
काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर.
विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,
वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से.
धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन मॅ छा जाती थी,
चुम्बन की कल्पना मन मॅ सिहरन उपजाती थी.
मेघॉ मॅ सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,
और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी.
फूल-फूल मॅ यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,
छिप जाता सौ बार बिहँस इगित से मुझे बुलाकर.
रस की स्रोतस्विनी यही प्राणॉ मॅ लहराती थी,
दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी.
किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,
मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है.
प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,
मधुमय हरियाले निकुंज मॅ आजीवन विचरॅ हम”

औशीनरी
आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?
जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है

निपुणिका
मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है.
जाते समय मंत्रियॉ से प्रभु ने यह बात कही है;
”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,
प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे.”
विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,
यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के.

औशीनरी
इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है
हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है
जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,
कब, किस पूर्वजन्म मॅ उसका क्या सुख छीन लिया था,
जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,
छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को.
ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यॉ तरस नहीं खाती हैं,
निज विनोद के हित कुल-वामाऑ को तड़पाती हैं.
जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,
हँसी-हँसी मॅ करती हैं आखेट नरॉ के मन का.
किंतु, बाण इन व्याधिनियॉ के किसे कष्ट देते हैं?
पुरुषॉ को दे मोद प्राण वे वधुऑ के लेते हैं