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द्वितीय अंक / भाग 1 / रामधारी सिंह "दिनकर"

द्वितीय अंक आरम्भ

प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते,
प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित:.
-विक्रमोर्वशीयं

[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ]


औशीनरी
तो वे गये?

निपुणिका
गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके
लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय मॅ भरके
लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे
हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे
प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,
अन्य नारियॉ पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,
तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियतमुसकाई,
महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई.

औशीनरी
फिर क्या हुआ ?

निपुणिका
देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ?

औशीनरी
पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?
कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,
जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे.
सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर मॅ !
समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर मॅ !
ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं,
पुरुषॉ की धीरता एक पल मॅ यॉ हर सकती हैं !
छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से?
प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी मॅ द्रुम की छाया से,
लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,
याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा मॅ आन ढली हो;
उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,
उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवंकी.
कुसुम-कलेवर मॅ प्रदीप्त आभा ज्वालामय मन की,
चमक रही थी नग्न कांति वसनो से छन कर तन की.
हिमकम-सिक्त-कुसुम-सम उज्जवल अंग-अंग झलमल था,
मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था
किसी सान्द्र वन के समान नयनॉ की ज्योति हरी थी,
बड़ी-बड़ी पलकॉ के नीचे निद्रा भरी-भरी थी.
अंग-अंग मॅ लहर लास्य की राग जगानेवाली,
नर के सुप्त शांत शोणित मॅ आग लगानेवाली.

'मदनिका
सुप्त, शांत कहती हो?
जलधारा को पाषाणॉ मॅ हाँक रही जो शक्ति,
वही छिप कर नर के प्राणॉ मॅ दौड़-दौड़
शोणित प्रवाह मॅ लहरें उपजाती है,
और किसी दिन फूत प्रेम की धारा बन जाती है.
पर, तुम कहो कथा आगे की, पूर्ण चन्द्र जब आया,
अचल रहा अथवा मर्यादा छोड़ सिन्धु लहराया ?