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धूप-ही-धूप में निकला / केदारनाथ अग्रवाल
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धूप-ही-धूप में निकला
मेरे पास से
काले पहाड़ का हाथी।
आश्वस्त कर गया मुझे
उस पर सवार
मेरी शक्ल का महावत।
आतंकित मैं
न रहा आतंकित;
देह में आ गया मैं-
देह का हुआ;
हर्ष की हिलोर में
नहा गया मैं।
चलते चले जाते हैं
छोकरे-
तालियाँ बजाते-
पछियाए,
हाथी की सूँड़ को
स्वर्ग की नसेनी
और कानों को
इंद्रपुरी के द्वार बतलाते।
रचनाकाल: ०५-०२-१९७८