Last modified on 3 फ़रवरी 2016, at 11:52

प्रार्थना - 12 / प्रेमघन

सम्पति सुयस का न अन्त है विचार देखा,
तिसके लिये क्यों शोक सिन्धु अवगाहिये।
लोभ की ललक में न अभिमानियों के तुच्छ,
तेवरों को देख उन्हें संकित सराहिए॥
दीन गुनी सज्जनों में निपट विनीत बने,
प्रेमघन नित नाते नेह के निबाहिये।
राग रोष औरों से न हानि लाभ कुछ उसी,
नन्द के किसोर की कृपा की कोर चाहिए॥