Last modified on 13 अप्रैल 2015, at 14:39

बक़ा ऐसी मिली थी तीरगी में / कांतिमोहन 'सोज़'

बक़ा ऐसी मिली थी तीरगी में ।
कि डर लगता है अब तो रौशनी में ।।

निगाहे-शौक़ सुध-बुध भूल बैठी
अजब जौहर छुपे थे सादगी में ।

हर एक शै नामुकम्मल सी लगे है
न जाने क्या कमी है ज़िन्दगी में ।

कहीं वादा वफ़ा अब हो न जाए
मज़ा आने लगा है आशिक़ी में ।

वो आए तो हुआ सबपे ये वाज़े
कहाँ पर क्या कमी थी चान्दनी में ।

मैं ख़ुद तस्वीर होकर रह गया था
कोई जादू था उसकी ख़ामुशी में ।

उजाला सोज़ छितराकर रहेगा
जो कुछ यकजा हुआ था तीरगी में ।