भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बच्चे की भाषा में / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
इस बच्चे की आंखें
मुझे बारूदी सुरंगों में ले जाती हैं
बारूदी इतिहास के
चौराहों पर मुझे अनावृत करती हैं
याद करो ! याद करो !
हवा में उछाल कर
बारूद दागना याद करो
हिटलर ! तुम्हें यह बच्चा नहीं दिखा?
और खुमैनी, तुम !
बारूदी जंग में बच्चों को
चारा बनाकर इस्तेमाल करने वाले खुमैनी!
तुमने इस बच्चे की आंखों से
वार्तालाप नहीं किया
उससे पहले भी याद करो! याद करो!
एक दहशत फैल जाती पूरे अस्तित्व पर
हिरोशिमा ! नागासाकी! क्यूबा! कोरिया!
और बांग्लादेश !
तब भी यह बच्चा कहीं गायब था
आज फिर
इस बच्चे की आंखों में झांकते हुए
रूह कांपती है
बच्चे की आंखों को पढ़ो
न बारूदी गन्ध के असर में
न मनोविज्ञान की किताब से
बच्चे को
बच्चे की आंख पढ़ो
और मुझे
दहशत से मुक्त करो!