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बटुआ / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी को समेटते-समेटते
मैं बटुआ बन गया
अबकी होली में
कोई चुपके से आया
बटुआ खोला
सारा रंग चुरा ले गया
बटुआ हक्का बक्का
ठगा-ठगा रोता रहा
समय की खूंटी से लटक
अपनी गांठ को
कभी ढीला करता
कभी कसता रहा
चोर रंगों से अपने को
भर लिया था
पर आईने के अक्स में
काला ही लग रहा था
चोर, रंगों के इस तिलिस्म को
मापता रहा
कंगूरे पर खड़ा मैं
आकाश में इन्द्रधनुष तलाशता रहा
सोचता रहा -
एक दिन बटुआ फिर मुस्कुराएगा
तब की होली में
उसका रंग कोई नहीं चुराएगा
तब की होली में
अपने आंगन की अल्पना
वह स्वयं बनाएगा।