शाम का इस क़दर दौर-दौरा है
कि सुबह भी
शाम बने बग़ैर
मेरे
आसमान में
नहीं आती।
शाम :
जब
मैं अपने ही जिस्म में
दुबक जाता हूँ
और
रंग बदलते
रंगारंग आसमान को देखता हूँ।
बीच में समंदर होता है।
और
उसकी पछाड़ खाती लहरों में
तुम्हारी
गुहार।
मैं सुनकर भी नहीं सुनता।
समंदर के उस पार
तुम होती हो
और सुबह होती है।
रचनाकाल : 15 मई 1975