भूत-प्रेत के घोॅर लगै
देव-पितर केॅ डोॅर लगै।
दलदल-खाई पर्वत पर
गाछ-बिरीछे तोॅर लगै।
जाड़ा केॅ जेठोॅ रं देखी
सब लोगोॅ केॅ जोॅर लगै।
की बसन्त जों मंजर ही नै
काँटे मेॅ ही फोॅर लगै।
सच्चाई केॅ के पूछै छै
बेमानी के दोॅर लगै।
सारस्वतोॅ के कविता बाँची
दुबड़ी तक भी बोॅर लगै।