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मन का दर्पण दरक गया / मृदुला झा
Kavita Kosh से
देख मुसीबत खिसक गया।
सतरंगी जीवन में क्योंए
शह का घोड़ा बिदक गया।
लम्हों की तो खबर नहींए
युग गिनने में अटक गया।
मंज़िल की जानिब था पर
राहों में ही भटक गया।
कतरा.कतरा पी कर वहए
ग़म का दरिया गटक गया।
तौबा उसका क्या कहनाए
मदिरा पीकर बहक गया।
मेरा इसमें दोष नहीं
सर से पल्लू सरक गया।