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मानसून देखा / प्रेमशंकर रघुवंशी
Kavita Kosh से
कई दिनों के बाद अचानक
जब तुमको देखा
हुआ नहीं विश्वास की तुम हो
खिंची भाल पर रेखा ।
तेरे सपनों में सावन के
मेघों की छाया
पलकों में फागुन की भाषा
भौहों में माया
बिछी गुलाली है कपोल पर
अधरों में अमृत
रतवंती लोरियाँ कान की
नासा है शुकवत
केश-राशि अर्पित करती है
यौवन का लेखा
कई दिनों के बाद अचानक
जब तुमको देखा ।
उड़ने को आकुल कपोत हैं
उर की धड़कन से
शिशिर सरीखी मोहित ख़ुद पर
कटि की लचकन से
शरद समाया नाभिकुण्ड तक
ग्रीष्म उमंगों में
मार्गशीर्ष चितवन तक फैला
ऋतुपति अंगों में
आज तुम्हारे मन में उठता
मानसून देखा
कई दिनों के बाद अचानक
जब तुमको देखा ।