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ये अधर : दो पत्तियाँ / देवेन्द्र कुमार

ये अधर : दो पत्तियाँ
दिन कि —
जैसे अन्धेरे में सुलगती हैं
बत्तियाँ।

उठ रहा कोई
नदी के छोर-सा
लग रहा जैसे
हुआ कुछ भोर सा
घाटियों में
गूँजती हैं
बादलों की पँक्तियाँ।

इस ज़मी को
आसमाँ से क्या मिला
दूर तक फैला
जड़ों का सिलसिला
जंगलों की गोद में
             कुछ बत्तियाँ।

बाढ़ की औकात क्या है
नील में
तैरती हैं आँख के इस झील में
             नींद में—
कुछ बत्तखें
कुछ कश्तियाँ।