ये रजधानी / यतींद्रनाथ राही
अन्ध निशा है
लक्ष्य दूर अति
डगर बहुत ही है अनजानी
यह रजधानी।
दौड़ रहे लकड़ी के घोड़े
धूल मण्डिता हुईं दिशाएँ
काँधों लदा तुमुल कोलाहल
हाँफ रही हैं थकी हवाएँ
जलती हुई रेत पर मौसम
बूँद-बूँद को तरस रहा है
अच्छे दिन का मेघ
न जाने
कौन देस में बरस रहा है
कल आएगा सरग उतर कर
कहाँ करेंगे
हम अगवानी?
यश के गीत
विजय के ध्वज हैं
नाच रहे सावन के अन्धे
आसमान में दाँव लगे हैं
कटी पतंगे उलझे फन्दे
कसी मुट्ठियाँ
दाम खोखले
भीड़ धकेले अन्धे-बहरे
हिलती पूँछ, हाँकते डींगें
उड़ी हवाएँ
लटके चेहरे
कौन गाँठ खोलेगा मन की
कौन,
घूँट भर देगा पानी?
कैसा राज-पाट यह वैभव
जलता प्यार
सुलगते रिश्ते
संस्कारों की उड़ी धूल में
निष्ठाओं के अंग सिमटते
ठगनी महा मधुपुरी ऊधौ!
प्राण हमारे
मधुवन-मधुवन
साँस-साँस में घुली बाँसुरी
रोम-रोम में
पुलकन-पुलकन
कहाँ हमारे पावन गोकुल
और कहाँ है
यह रजधानी?