सहमी रहती थी किताबें अक्सर
तुम्हारी चमकदार
सम्मोहक आंखों में न जाने क्या देखकर।
सिमटी-सी पड़ी रहती डायरी
दराज की ओट से टुकुर-टुकुर
देखती तुमको
कभी निकलती भी बाहर तो जा लौटती
फिर वहीं निःशब्द अनखुली-सी
अब, जब नहीं हो तुम
घर-भर में धमाचौकड़ी मचा रही पुस्तकें
घूम रही इधर-उधर
फड़फड़ा रहे खुली हुई डायरी के उत्कंठित पन्ने।
यह कहीं छटपटाहट तो नहीं शब्दों की
जो हो रहे उतावले
बाहर निकल आने को।