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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार अनिल|संग्रह=और कब तक चुप रहें / कुमार अनिल}}{{KKCatGhazal‎}}‎<poemPoem>बड़ा अजीब सा मंजर मंज़र दिखाई देता है।है ।तमाम शहर ही खंडहर दिखाई देता है।है ।
जहाँ, उगाई थी हमने फसल फ़सल मुहब्बत की,वो खेत आज तो बंजर दिखाई देता है।है ।
जो मुझको कहता था अक्सर कि आइना हो जा,
उसी के हाथ में पत्थर दिखाई देता है।है ।
हमें यह डर है किनारे भी बह न जायें जाएँ कहीं,अजब जुनूँ में समन्दर दिखाई देता है।है ।
अजीब बात है, जंगल भी आजकल यारो,
तुम्हारी बस्ती से बेहतर दिखाई देता है।है ।
न जाने कितनी ही नदियों को पी गया फिर भी,
युगों का प्यासा समन्दर दिखाई देता है।है ।
वो जर्द ज़र्द चेहरों पे जो चाँदनी सजाता है,मुझे खुदा ख़ुदा से भी बढ़कर दिखाई देता है।
</poem>
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