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बड़ा अजीब-सा मंज़र दिखाई देता है / कुमार अनिल
Kavita Kosh से
बड़ा अजीब सा मंज़र दिखाई देता है ।
तमाम शहर ही खंडहर दिखाई देता है ।
जहाँ, उगाई थी हमने फ़सल मुहब्बत की,
वो खेत आज तो बंजर दिखाई देता है ।
जो मुझको कहता था अक्सर कि आइना हो जा,
उसी के हाथ में पत्थर दिखाई देता है ।
हमें यह डर है किनारे भी बह न जाएँ कहीं,
अजब जुनूँ में समन्दर दिखाई देता है ।
अजीब बात है, जंगल भी आजकल यारो,
तुम्हारी बस्ती से बेहतर दिखाई देता है ।
न जाने कितनी ही नदियों को पी गया फिर भी,
युगों का प्यासा समन्दर दिखाई देता है ।
वो ज़र्द चेहरों पे जो चाँदनी सजाता है,
मुझे ख़ुदा से भी बढ़कर दिखाई देता है।