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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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तुम लाजवाब थे और लाजवाब हो
ये किसने कह दिया तुम्हें तुम ख़राब हो

कलियों सा ढंग है, फूलों सा रंग है
और चाँद की तरह, तुम पुर-शबाब हो

पढ़ता रहा तुम्हें, पढ़ता रहूँगा मैं
कल भी किताब थे, अब भी किताब हो

मैं तुमसे आशना, तुम मुझसे आशना
फिर आज शर्म से, क्यों आब आब हो

क्या नाम तुमको दूं , और क्या मिसाल दूं
तुम आफताब हो, तुम माहताब हो

दुनिया में लोग जो, दुश्मन हों प्यार के
इक दिन ख़ुदा करे, उन पर अज़ाब हो

होते हुए 'रक़ीब', तुम दिल के हो क़रीब
तुम पर करम ख़ुदा, का बेहिसाब हो
</poem>
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