भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम लाजवाब थे और लाजवाब हो / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
Kavita Kosh से
तुम लाजवाब थे और लाजवाब हो
ये किसने कह दिया तुम्हें तुम ख़राब हो
कलियों सा ढंग है, फूलों सा रंग है
और चाँद की तरह, तुम पुर-शबाब हो
पढ़ता रहा तुम्हें, पढ़ता रहूँगा मैं
कल भी किताब थे, अब भी किताब हो
मैं तुमसे आशना, तुम मुझसे आशना
फिर आज शर्म से, क्यों आब आब हो
क्या नाम तुमको दूं , और क्या मिसाल दूं
तुम आफताब हो, तुम माहताब हो
दुनिया में लोग जो, दुश्मन हों प्यार के
इक दिन ख़ुदा करे, उन पर अज़ाब हो
होते हुए 'रक़ीब', तुम दिल के हो क़रीब
तुम पर करम ख़ुदा, का बेहिसाब हो