गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक
2 bytes added
,
05:55, 19 दिसम्बर 2011
<poem>
कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
कुर्सी के दर्द ने
गुज़रे हम गाते चौराहों से
अनमने ।
जाने क्यों कई मर्तबा
व्यंग्य भरे खिलखिला उठे
मुट्ठी भर जेब के चने
गुज़रे हम
अनमेने
अनमने ।
</poem>
अनिल जनविजय
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,388
edits