भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
                     कुर्सी के दर्द ने
     गुज़रे हम गाते चौराहों से
                          अनमने ।

जाने क्यों कई मर्तबा
किया कर चली गई
दक्खिनी हवा
टूट कर झीनी-सी अरगनी
मार गया जैसे लकवा

व्यंग्य भरे खिलखिला उठे
        मुट्ठी भर जेब के चने
          गुज़रे हम अनमने ।