तन-मन-धन देतिं वारि, बार-बार ओलै ॥
सखी ! मणिमय सुसज्जित आँगनमें आँगन में गोपाललाल क्रीड़ा कर रहे हैं । घुटनों चलते हैं,चारों ओर सरकते-घूमते लड़खड़ाते हैं, बार-बार (मणीभूमिमेंमणीभूमि में) अपना प्रतिबिंबदेख-देखकर हँसते और किलकारी मारते हैं, घूम-घूमकर पीछे देख-देखकर`मैया-मैया बोलते हैं । जैसे मँडराते भौरोंके भौरों के साथ निर्मल कमल पानी पर बहता जाता हो, इस प्रकार घुँघराली अलकोंसे अलकों से घिरे चंचल मुखकी मुख की शोभा मणिभूमिमें मणिभूमि में (प्रतिबिम्बित होकर) हो रही है । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि इस शोभाको शोभा को देखकर व्रजकी व्रज की स्त्रियाँ थकित (शिथिलदेह) हो रहीं,तन,मन, धन -वे निछावर किये देती हैं और बार-बार उसी (मोहन) की शरण लेती(उसीको उसी को देखने आ जाती) हैं ।