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और छपने का एक भी नहीं<br>
फिर भी मैं छपा<br>
:-एक भाशःआ भाषा के डूबते टापू के सारे बाशिन्दे समुद्र के सारे सीप, सारे मोती<br>
:क्योंकि अपनी अलमारी के ताखे में रख लेना चाहते थे<br>
और क्योंकि मैं भी उनमें से एक था<br><br>
पुरस्कार-समितियों के सदस्य<br>
और व्यक्त्तित्व्वान व्यक्त्तित्ववान आलोचक<br>
कवियों के सपनों में कविताएँ डिक्टेट कर रहे थे<br>
और जागा हुआ कवि<br>
दुर्घटना कॆ ख़ामोश, निष्क्रिय तमाशबीनों को<br>
उनके संयम के जवाब में प्रशस्तियाँ बाँट रही थी<br><br>
नई फ़सल के शब्द-सिपाही<br>
मंचीय कर्मकांड के अविश्वाआशी थे<br>
लेकिन मुकुट के अभिलाषी थे<br>
अपने तईं वे भी निर्वाण के हक़दार थे<br>
हालांकि पलट पड़ने को भी तैयार थे<br>
कोई भी राह पकड़कर<br>
किसी भी दिशा में<br>
वे कहीं भी जा सकते थे<br>
उन्होंने कोई कसम नहीं खाई थी<br>
बेढब लोच उन्होंने पाई थी<br>
ऎसे उन लोचवान हमउम्रों के बीच<br>
और ऎसे उन पुरखों के बीच<br>
जो छप-छपकर पत्थर हो चुके थे / हर लोच खा चुके थे<br>
अकारण<br>
या मंगलवार का अखंड व्रत रखने के कारण<br>
मैं छपा<br>
और मैंने जाना<br>
मेरी आधी-हुई आधी-अनहुई उन परेशान अभिव्यक्तियों ने माना<br>
कि मेरे शब्दों का मंतव्य अंतत: कुछ भी न था<br>
कि वे एक बेसब्र समाज की बेसब्र भाषा के<br>
बेहद लचीले, बेहद अस्थिर और लगातार अर्थ-संदिग्ध शब्द थे<br>
:खाली ध्वनिच्युत मंत्र<br>
:जिनके अनुष्ठान मारे जा चुके थे<br>
:पेशाबघर में चिपके वे<br>
:बस मर्दानगी को पुकारते थे<br>
:(कि हाथ से निकले जाते वक़्त को<br>
:बस वही थाम सकती थी)<br>
और उनका मकसद सिर्फ़ छपना था<br>
और छपकर जल्द-अज-जल्द पत्थर हो जाना था<br>
जो हवा को भी रोकता है और पानी को भी<br>
और जिससे इमारतें बनती थीं-- पहले भी और आज भी।<br>
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