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स्थगन / मनोज कुमार झा

149 bytes added, 09:22, 7 जनवरी 2015
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|रचनाकार=मनोज कुमार झा
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|संग्रह=तथापि जीवन / मनोज कुमार झा
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<poem>
जेठ की धहधह दुपहरिया में
जब पाँव के नीचे की जमीन ज़मीन से पानी खिसक जाता हैचटपटाती जीभ ब्रह्मांड ब्रह्माण्ड को घिसती है
कतरा-कतरा पानी के लिए
सभी लालसाओं को देह में बाँध
सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए
पृथ्वी से बड़ा लगता है गछपक्कू आम
जहाँ बचा रहता है कंठ कण्ठ भीगने भर पानी
जीभ भीगने भर स्वाद
और पुतली भीगने भर जगत
शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में
आम का रस चूता है
और उसकी आँखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफतरफ़
जहाँ सर्वाधिक स्थान छेक रखा है
जीवन को अगली साँस तक
पार लगा पाने की इच्छाओं ने
माथे के ऊपर से अभी-अभी गुजरा गुज़रा वायुयान गुजरने गुज़रने का शोर करते हुएताका उत्कंठित उत्कण्ठित स्त्री ने
आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था
बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को
पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम
और वक्त वक़्त होता तो कहता कोई शिशु चंद्र चन्द्र ने खोला है मुँह
तरल चाँदनी चू रही है
अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में
कंपाऽयमाऽन कम्पाऽयमाऽन </poem>
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