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मेरी सुतलियां
मेरे साथियों से अच्छी हों
सोचता है चटकल का मज़दूर
सुनता है-
ये चट, ये टाट
जायेंगे सुदूर देशों में
जहां गोरे लोग रहते हैं
मेमों की कटी जुल्फ़ों के ही रंग सी
वैसी ही मुलायम-पाट

शायद वैसी ही खुशबूदार
सोचकर ज़ोर से सूंघता है
और मुस्कुराता है मज़दूर

क्या पहुंचती होगी उन तक
उसके अंगुलियों की थिरकन
दुनिया को सुतली की तरह नरम और मज़बूत बनाने के इरादे
और
उसके चुचुआते पसीने की नरमी?

क्या इस समय
वे भी कुछ कात रहे होंगे
उसके लिए
अपने देश में
अपने घर में
अपने दिल में

फिर सहसा वह मुरझा जाता है
सुनकर साथियों की बातें
कि उनके हाथों के लिए तैयार हो रही है
वहीं कहीं एक-आरी.।

</poem>
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