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हाथों के लिए (कविता) / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
मेरी सुतलियां
मेरे साथियों से अच्छी हों
सोचता है चटकल का मज़दूर
सुनता है-
ये चट, ये टाट
जायेंगे सुदूर देशों में
जहां गोरे लोग रहते हैं
मेमों की कटी जुल्फ़ों के ही रंग सी
वैसी ही मुलायम-पाट
शायद वैसी ही खुशबूदार
सोचकर ज़ोर से सूंघता है
और मुस्कुराता है मज़दूर
क्या पहुंचती होगी उन तक
उसके अंगुलियों की थिरकन
दुनिया को सुतली की तरह नरम और मज़बूत बनाने के इरादे
और
उसके चुचुआते पसीने की नरमी?
क्या इस समय
वे भी कुछ कात रहे होंगे
उसके लिए
अपने देश में
अपने घर में
अपने दिल में
फिर सहसा वह मुरझा जाता है
सुनकर साथियों की बातें
कि उनके हाथों के लिए तैयार हो रही है
वहीं कहीं एक-आरी.।