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बदन पहले कभी छिलता नहीं था / विकास शर्मा 'राज़'
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बदन पहले कभी छिलता नहीं था
हवा का लम्स तो ऐसा नहीं था
तुम्हारी मुस्कुराहट को हुआ क्या
ये परचम तो कभी झुकता नहीं था
चलो अच्छा हुआ डूबा वो सूरज
कहीं भी रौशनी करता नहीं था
ये दरिया पहले भी बहता था लेकिन
किनारे तोड़ कर बहता नहीं था
</poem>
Shrddha
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