भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बदन पहले कभी छिलता नहीं था / विकास शर्मा 'राज़'
Kavita Kosh से
बदन पहले कभी छिलता नहीं था
हवा का लम्स तो ऐसा नहीं था
तुम्हारी मुस्कुराहट को हुआ क्या
ये परचम तो कभी झुकता नहीं था
चलो अच्छा हुआ डूबा वो सूरज
कहीं भी रौशनी करता नहीं था
ये दरिया पहले भी बहता था लेकिन
किनारे तोड़ कर बहता नहीं था