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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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दिखाए वक़्त ने पथराव इतने
वगरना दिल पे होते घाव इतने
धड़ल्ले से ख़रीदे जा रहे हैं
ज़मीरों के गिरे हैं भाव इतने
कहानी खो चुकी है अस्ल चेहरा
किये हैं आप ने बदलाव इतने
कई सदियां लगेंगी भरते भरते
फ़सीले वक़्त पर हैं घाव इतने
बचाओ ख़ुद को अब शर्मिदगी से
कहा था हाथ मत फैलाव इतने
</poem>
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दिखाए वक़्त ने पथराव इतने
वगरना दिल पे होते घाव इतने
धड़ल्ले से ख़रीदे जा रहे हैं
ज़मीरों के गिरे हैं भाव इतने
कहानी खो चुकी है अस्ल चेहरा
किये हैं आप ने बदलाव इतने
कई सदियां लगेंगी भरते भरते
फ़सीले वक़्त पर हैं घाव इतने
बचाओ ख़ुद को अब शर्मिदगी से
कहा था हाथ मत फैलाव इतने
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