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15:03, 18 दिसम्बर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राम नाथ बेख़बर
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|संग्रह=
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<poem>
कमी कहाँ से रह गई निरीह क्यूँ वो मर गया
कराह उसकी सुन के मेरा दिल भी ये सिहर गया।
यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ ये पूछ मत कहाँ कहाँ
जिगर का मेरा दर्द पोर-पोर में पसर गया।
हवा के साथ साथ वो जो डोलता था शाख पे
अभी अभी यहीं वो पात टूट के बिखर गया।
मुड़ा तो ये भी मुड़ गया झुका तो ये भी झुक गया
ये अक्स मेरे संग ही ठिठक गया ठहर गया।
मिली मुझे वो हाथ थामे अपने ब्वॉय फ्रेंड का
ये देख करके इश्क का नशा मेरा उतर गया।
यकीं था मुझको हौंसलों पे इसलिए तो आज तक
बुरा सा मेरा वक़्त भी न जाने कब किधर गया।
अजी जरा सुनों तो आके बेख़बर के गीत को
समय के साथ देख लो जरा सा ये निखर गया।
</poem>
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